राष्ट्रवाद और देशभक्ति की लगातार उटपटांग परिभाषाएं गढ़ने वाले कथित राष्ट्रवादी इन दिनों देश के मुसलमानों और खुद को धर्मनिरपेक्ष मानने वाले लोगों से एक सवाल अक्सर पूछते हैं - धर्म बड़ा या देश ? सोशल मीडिया उनकी ऐसी जिज्ञासाओं से पटा हुआ मिलता है। इस सवाल के पीछे कोई दृष्टि अथवा जिज्ञासा नहीं, चिढ़ाने की भावना ही ज्यादा होती है।
ईश्वर ने तो यह पृथ्वी बनाई, प्रकृति बनाई, सौंदर्य बनाया, प्रेम बनाया, ममता, करुणा और मासूमियत बनाई। धर्म और देश हम मनुष्यों की रचना है। धर्म लोगों ने बनाए समाज में नैतिक व्यवस्था लागू करने और शैतान को क़ाबू में रखने के लिए, लेकिन कालांतर में दुनिया के सभी धर्म आहिस्ता-आहिस्ता शैतानों के क़ब्ज़े में चले गए। प्रेम, भाईचारे और अमन के संदेश देने वाले धर्मों के नाम पर दुनिया में सबसे ज्यादा क़त्लेआम हुए हैं। आज धरती पर अशांति, उपद्रव और आतंक की सबसे बड़ी वज़ह धर्म ही है। वैसे ही ईश्वर ने देश नहीं बनाया। संपत्ति की अवधारणा पैदा होने के बाद हमने पृथ्वी को राज्यों और देशों में बांट दिया। वसुधैव कुटुम्बकम का आदर्श भूल अपने राज्य के भूगोल, अपनी संपत्ति और संसाधन बढ़ाने की ज़िद में राजाओं, बादशाहों और सरकारों ने दुनिया पर अनगिनत युद्ध, महायुद्ध थोपे और करोड़ों लोगों की बलि ली। देशों के नाम पर इतने रक्तपात के बावजूद दुनिया के किसी भी देश का स्वरुप और भूगोल स्थायी नहीं रहा। वे टूटते, जुड़ते और बदलते रहे। खुद हमारा देश आज़ादी के बाद अबतक तीन टुकड़ों में बंट चुका है। मेरे विचार से धर्म और देश की अवधारणाएं बदलते समय के साथ अप्रासंगिक होने लगी हैं। सो यह सवाल भी अप्रासंगिक है कि धर्म बड़ा है या देश।
पूछा यह जाना चाहिए कि इन दोनों में मनुष्यता के लिए ज्यादा ख़तरनाक़ कौन है - धर्म या देश ?
Courtesy: Dhruv Gupt